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ध्यानकल्पतरू.
आरोग्य-सुखके इच्छक हैं. परन्तु अशुभवेदनी कर्मोदयसे, जो जो रोग-असाताका उदय होताहैं, उसे भोगवे विन छूटका नहीं. श्रीउत्तराध्ययनजी सुत्रमें फरमायहै की “कड्डाण कम्मानमोख्ख अत्थी" अर्थात् कृत्य कर्मके फल भुक्ते विनछूटका नहीं. मनुष्यके सरीरपर, साडे तीन करोड रोम गिने जाते हैं; और एकेक रोम (रुम-बाल) के स्थानमें पोणे दो दो रोग कहते हैं. तो विचारीये यह शरीर कित्ने रोगोंका घर हैं. जहांलग सातावे दनिय कर्मका. जोर हैं, वहांतक सबरोग दबे (ढके) हुयेहैं. और पापोदय होतें, कुष्ट (कोड), भगंदर, जलंधर, अतीसार, श्वाश, खास, ज्वरादि, अनेक उद्रवीकार रुद्रवीकार से भयंकर रोग उप्तन्न हो, पीडा (दुःख) देते हैं; तब चित आकुल व्याकुल हो, अनेक प्रकारके सकल्प वि
कृतकर्मो क्षयो नास्ती, कल्प कोटी शतैर्पि;
अवश्य मेव भुक्तव्यं, कृत्कर्म सुमासुभं. ४३२.०००००० इत्ने वर्षों का एक कल्प किया जाता हैं. ऐसे कोडों कल्पमेंही किये हुये कर्मका फल भोगवें विन छुटका नहीं झेता है !!