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प्रथमशाखा-आर्तध्यान.
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कल्प उप्तन्न होते हैं. सो तीसरा आर्तध्यान. ( २ ) और उन रोगोंका निवारण करने, अनेक औषधोपचार के लिये; अनंत काय, एकेंद्रीसे लगा पचेंद्रीय तक जीवोंका, अनेक तरह, आरंभ, सभारंभ, छेदन भेदन, पचन पाचनादि, क्रिया करनेका, अंतःकरण में विचार होवे; शिघ्रतासे उनका नाश करने चटपटी लगे; उनकी हानी वृधीसें हर्ष शोक होय, है प्रभु ! स्वपनांतर में भी ऐसा दुःख मत होवो. इत्यादि अभीलाषा होवे, सो तीसरा आर्त ध्यान.
चतुर्थ पत्र - "भोगिच्छा.”
४ “भोगिच्छा आर्तध्यान" सो - १ पांच इन्द्रिय सम्बंधी काम भोग भोगवणे की इच्छा होय; अर्थात् श्रवणेंद्री (कान) से, राग रागणी, किन्नरीयोंके गायन, और बाजिंत्रोंका मंज्जुल राग, सुननेमें, चक्षूरेंद्री (आँख) सेनृत्य ( नाच ) षोडश
पांच इंद्रियोंमें, कान और आँख यह दो इंद्रियकाभी हैं अर्थात् शब्द सुनना और रूप देखना यह दो काम देती हैं. और, घ्राण, रस, स्फये ये तीन भोगी हैं अर्थात्, गंध, स्वाद, और स्त्रीयादिका उप भोग लेती हैं