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________________ १२ ध्यानकल्पतरू. श्रंगारसे विभुषित स्त्री पुरुष, वगीचे, आतसबाजी (दास) के ख्याल, मेहल मंडपोंकी सजाइ, रोशनाइ, वगैरेको देखने में, घ्राणेंद्री (नाक) से, अतर पुष्पादी सुगंधमें, रसेंद्री (जिभ्या) सें, षट रस भोजन, अभक्ष भक्षणमें. और शयनासन, वस्त्र भुषण, स्त्रीयादिके विलास भोगमें, आनंद मानना, इनका संयोग सदा ऐसाही बनारहो. तथा में बड़ा भाग्यशाली हूं, के मुजे इछित सुखमय, सर्व सामग्री प्राप्त हुइहैं, वगैरे खुशी माननी. सो भोगिच्छा आर्त ध्यान.(२)औरभोगांतराय कर्मोदयसे, इच्छित सुख दाता सुसामग्रीयोंकी प्राप्ती नहीं हुइ; अन्य राजे श्वर्य, या इन्द्रादिकको, ऋधी सुखका भोग लेते देख, तथा शास्त्र ग्रन्थ द्वरा श्रवण कर, आपकों प्राप्त होनेकी अंतःकरण मे अभीलाषा करे, की है प्रभू! एकादा राज्य मुजे मिल जाय, या कोइ देव मेरे स्वाधीन (वस) हो जाय, तो में भी ऐसी मोज मजा मुक्त के मेरा जन्म सफल करूं. जहां तक ऐसे सुख मुजे न मिलें, वहां तक में अधन्य हूं. अपुन्यहूं.वगैरे विचार करे,(३)और तप, संयम,प्रत्याख्यान (पच्चखाणा) दी करणी कर, नियाणा (नि
SR No.006299
Book TitleDhyan Kalptaru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherKundanmal Ghummarmal Seth
Publication Year
Total Pages388
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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