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ध्यानकल्पतरू.
१ अक्रांद रुदन करे. २ शोक (चिंता) करे. ३ आ खोंसे आंथ डाले. ४ विलापात करे.
आर्त ध्यान ध्याता को बाह्य चिन्होसें, पहछाननेके लिये, भगवानने सूत्रमें, ४ लक्षण फरमा ये हैं; सो अनिष्टका संयोग, इष्टका वियोग, रोगादी दुःखकी प्राप्ती, और भोगादी सुखकी अप्राप्ती; यह चार प्रकारके कारण निपजनेसे, सकर्मी जीवों कों कर्मोकी प्रबलता से स्वभाविकही चार काम होते हैं.
प्रथम पत्र “कंदणया” १ कंदणया अक्रांद रुदन करे. की हायरे मेरे सुसंयोगका नाश हो, ऐसेकू संयोगकी प्राप्ती क्यों होती हैं? हा देव ! हा प्रभू !! इत्यादि विचार उद्भवनेसे, अरडाट शब्दसे रुदन करे.
द्वितीय पत्र “सोयणया” . २ सोयणया-सोच चिंता करे, कपालपे हाथ ख्यान संयम न होवे. और २ वस्तु प्रतेक सो किसी वस्तुका प्राप्तीका निदान करे, जैसे द्रोपदीजी, उन्हे वस्तु न मिले वहां वक सम्यक्तव प्राप्त न होवे.