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प्रथमशाखा-आर्तध्यान.
धरे, नीची द्रष्टीकर सुन्नमुन्न हो बेठे, पृथवी खने (खोदे) त्रण तोडे, बावला जैसा बने, तथा मुर्छित हो पड़ा रहै.
तृतिय पत्र “तिप्पणया” ३ तिप्पणया-*आँखोंसे आश्रपात करे, बातर में उस वस्तुका स्मरण होतेही रो देवे. उंड़े निश्वास डाले.
चतुर्थ पत्र “विलवणया” ४ विलवणया-विलापात करे. अंग पछाडे. हदयपे, सिरपे, प्रहार करे; बाल तोडे, हाय ओय जुलूम हुवा, गजब हवा, बडा जबर अनर्थ हुवा, वगैरे भयंकर शब्दोचार करे, और क्लेश टंटे, झगडे, करे, तथा दीन दयामणे शब्दोचार करे. वगैरे सब आर्त ध्यानीके लक्षण जाणना.
श्लेष्माश्रबाध वैमुक्त, प्रेतोभुक्तं यतोऽवशः अतो नरो दितव्यंहि, क्रियाः कार्याः स्वशक्तिः. मरने वालेके पीछे उसके स्वजन स्नेही रुदन करके, अश्रु और श्लेषम डालते हैं. उसे वो मरने वाले खाते हैं, ऐसा मिताक्षर ग्रंथमें कहा हैं.