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________________ १६ ध्यानकल्पतरू. आतध्यानके “पुष्प और फल” . आर्त ध्यानीकों अप्राप्त वस्तुको प्राप्त करने की अत्यंत उत्कंठा (आशा वांच्छा) रहती हैं. अहोनिश उधरही लक्ष लगा रहता है. जिससे अन्य कामका अनेक तरहसे बीगाडा होता है, हरकत पडती है. धर्म करणी संयम तपादी कर केभी *कुंडरिक की तरह यथा तथ्य लाभ प्राप्त कर सक्ते नहीं हैं. *जंबू द्विपके पुर्व महाविदेहकी, पुष्कलावति विजयकी, पुंडरी राजध्यानीके, पद्मनाभ राजाके. कुंडरिक कुवरने दिक्षा धारण करी. पुडरीक कुंवरको राज प्राप्त हुवा. भइको राज्य सूख भागवते देख कुंडरिक का मन ललचाया. और गुरुका संग छोड मेहलके पीछेकी आशोक वाडीमें गुप्त आके बेठे. मालीसे खबर मिलतेही पुंडरिक राजा तुर्त भाइके दर्शन करने आये. और मुनीका चित उदास देख पुछनेसे उनने राज वैभवकी परसंस्या करी, मुनीका मन चलित देख, राजा अपने वस्त्र भूषण उतार मुनीकों दिय और मुनीका उतारा हुवा वेश राजा धारण कर गुरुजीके दर्शन करने चल. तीन दिन उपवाससे गुरुजीको भेट, लुक्खम, सुक्खम शुद्ध अहार भोगवनेसें, अत्यंत पीडा (दुःख) हुवा और आयुष पूर्ण कर स्वार्थ सिद्ध विमानमें देवता हुये. पीछेसें कुंडरिक राज वेश धारण कर राज्य सुख भोगनेमें अत्यंत लुब्ध हुये. ताकदबडनके लिये मांस मदिरादि अभक्षका भक्षण करनेसें, अत्यंत असाह्य वेदना उप्तन्न हुइ. तीन दिनमें. आयुष्य पूर्णकर भोग बिन भोगवेही मरके सातमी नर्क गये.
SR No.006299
Book TitleDhyan Kalptaru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherKundanmal Ghummarmal Seth
Publication Year
Total Pages388
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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