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________________ तृतीपशाखा-धर्मध्यान. २५९ जाते है परंतु द्रष्ठी नहीं आते है सुक्ष्म रुप से एक स्थान में भेलंभेल असंख्य उपजतेहै, और तुर्त मरते है. भिष्ठपेभिष्टा, मुत्रमें मुत्र, करने से वगैरे इनकी हिंशा हर वक्त होती है. ऐसें दुःखमय स्थानमें, अपन अनंत विटंबना भोग आये है. [मनुष्य जन्मकी श्रेष्टता गिनने का इलाही प्रयोजन है की, तिथंकर साधू, श्रा वक, वगैरें इसीमें होते है. और मोक्षभी मनुष्य जन्म विन नही मिल शक्ति है.] ४ देवगति-दिव्य उच्चगतिवाले सो देवता के १९८ भेद कहे है. असुर कुँवार, नाग कुँवार, सुवर्ण कँवार, विगत कुँवार. अग्नी कुँवार, उदधी कुँवार, दिशा कुँवार, द्विप कुँवार, पवन कुँवार, स्थ नी कुँवार, यह १० और १५ पहले परमाधामी [यम] देवके नाम कहे, सो २५ ही भवन पतिके जातके देवता हैं. यह पहले नर्कके आंतरे में रहते हैं. और पिशाच, भूत, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, महोरग, गंधर्व, इसीवा, भुइवा, आनपन्नी, पानपन्नी, कंदिय, महाकंदिय, कोहडं और पहं देव यह १६ व्यंतर तथा आन झमक पाणझमक, लेणझमक, सेणझमनः, वत्थ झमक, पत्त झमक, पुष्प झमक, फल झमक, बी. ...
SR No.006299
Book TitleDhyan Kalptaru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherKundanmal Ghummarmal Seth
Publication Year
Total Pages388
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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