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________________ २५८ ध्यामकल्पतरू. भरनेकी ही मुशीबत पड रही है. तो अन्य कुटम्बका निर्वाहा तो दूरही रहा, किल्लेक अंगोपांग हीन लूले, लंगडे, अन्धे, बहीरे, वगैरे है, किल्लेक अनार्य म्लेच्छ देशमें उत्पन्न हुवे; फक्त नाम मात्र मनुष्य है, उनके क में पशुसेभी खराब हैं, धर्म के नाममेंभी नहीं समजते हैं, मनुष्यका अहार करते है, वस्त्र रहित रहते है, मा त, भग्नी, पुत्रीयादी से विभचार का कुछ विचार नहीं है. जंगलमें भटक २ जन्म तेर करते है. अक्रम भूमी के क्षेत्रोंमें उत्पन्न हये मनुष्य देव कुरू उत्तर कुरू में सु खकी उत्कृष्टता हैं, हरीवास रम्यकवास में सुखकी मध्यमता है और हेमवय ऐरण्यवयमें सुखकी कनिष्टता है परंतु सर्व धर्मरहित भद्रिक प्रणामी. प्रयाय पशुकी तरह पूवे पुण्यसे प्राप्त हुये, दशकल्प वृक्षो के योग्य से सुख भोगवते है और मर जाते है. अतर द्विपमे रहने वाले मनुष्य नाम मात्र हैं पानी पे ड्रगरीयोंमें वनमे रहते हैं सरीर मनुष्य जैसा होके. किल्नेकके मुख हाथी घोडेसिंह गाय जैसे होतेहैं. यह मिथ्यात्व द्रष्टी हैं कुछ पुण्योदयसे इन्की भीइच्छा कल्प वृक्ष पूरतेहैं. समुत्छिम मनुष्य, फक्त मनुष्य अंग के पदार्थ भिषा पत्र रक्तादी में होते हैं. जिससे वो मनुष्य कहे
SR No.006299
Book TitleDhyan Kalptaru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherKundanmal Ghummarmal Seth
Publication Year
Total Pages388
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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