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________________ २१८ ध्यानकल्पतरू. दिख रहा है. इत्यादी किस २ का बयान करूं "संसार मी दुरक पउरय" अर्थात संसार दुःख करके प्रती पूर्ण भरा हैं. यह पापके फल बताय. [२] अब देखीये पुण्य फल, जो किसीको दुःख नहीं देतें हैं. वे हमेशा निश्चित आराम करते है, और वकपे - सब "मिल, उनकी सहाय्यता करते है. शूट नहीं बोलते है तो उनकी इज्जत, पंचायती में, तथा राज सभा में करते है, चोरी नहीं करते है वो बड़े विश्वासु होते है. भंडारमें जातेभी उन्हें कोई नहीं अटकाता हैं, ब्रम्हचारी है, उनका तेज, बल, बुद्धि, निरोगता, सर्वाधिक है, ममत्व तृष्ण रहित हैं. वे सदा सुखी है, " संतोषं नंदनं वनं " अर्थात संतोष 'नंदन वन' समान सुखदाता है. देखीये, साधूजी बिना धन ही, बडे २ महाराजाके पूज्य हों, निश्चित ज्ञानमें अपनी आत्माको रमण करते, सीधे अन्न वस्त्रसे निर्वाह करते, सदा आनंदमें रहते है, यह सुभ कृत्यका फल इसही भवमें प्रतक्ष दिखता है, [[३] किल्नेक कर्म ऐसे है की इस भवमें किये, आगे फलप्राप्त होते है, ह्यां कित्नेक जन, पाप कर्म करते भी सुखी दिखते है, वो सुख उनको पूर्वोपारजित, शुभ कृत्यों का फल समजना चाहीये, आगे पापकृतके फल ५
SR No.006299
Book TitleDhyan Kalptaru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherKundanmal Ghummarmal Seth
Publication Year
Total Pages388
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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