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________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान. ९७ ।। हैं. ऐसा निश्वय करके हे जीव ! अन्य सर्व पदार्थ अलग हैं. और में शुद्ध चैतन्य अलग हुं. यह मेरे नहीं में इनका नहीं. ऐसा विचारता सर्व द्रव्यसे अलग हो, अपने निज स्वरूपको प्राप्त कर सुखी होवे. ६ “अशुची-भावना,” इस सरीरको शुची करने, कित्नेक असंख्य अपकाय(पाणी)के जीवोंका बध करतेहैं, सो भिष्टाके घटको शुची करने जैसा करते हैं. देखीये यह सरीर रुद्र और शुक्रके संयोगसे तो उत्पन्न हुवा हैं. दुग्ध, और भिष्टाके क्षातसे उत्पन्न हुये पदार्थोंके भक्षणसे वृधी पाया, और जिन पदार्थोंकी इस सरीमें वृधी हुइ वोभी अशूची हैं. इस सरीके संयोगसे सु. ची पदार्थ अशूची होतें हैं. सुर्भिगंधी दुर्गंधी होते हैं. परशंसनिय, निंदनिय होतें हैं. मनहर दुगंछनिय होते हैं. बहूत कालसे सेप्रेम संग्रह करके रखे हुये पदार्थ इस सरीरका सम्बध होतेही, उकरडीपे डालने जैसे वन जाते हैं !! और इस सरीरमेंसे निकलते हूये सर्व पदार्थ, घ्रगाको उत्पन्न करते हैं. ऐसे इस सरीरमें प्रेम उत्पन्न करने जैसा कोनसा पदार्थ हैं ? परन्तु मोहमघमें छके हुये जीव अशुचीकोंही प्राण प्यारे बनाते हैं. इससे और ज्यादा अज्ञान दिशा कोनसी? उनकेही सरीरके.. उनको प्यारे लगते पदार्थ, सरीरसे अलग कर
SR No.006299
Book TitleDhyan Kalptaru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherKundanmal Ghummarmal Seth
Publication Year
Total Pages388
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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