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________________ ९६ ध्यानकल्पतरू. यह जीव अनादि कालसे परिभ्रमण करता थका नहीं. अब इस भ्रमणसें निर्बत संसारकी घ्रणा लावेगा, वोही मोक्ष पावेंगा. ४ “एकत्व भावना"- इस जीवकों सहजानंद (स्व. भावसे होता) सुखकी सामुग्री देनेवाला. अनंत गुणका धारक कैवल्य ज्ञान हैं. वोही आत्माका स हज सरीर हैं; वोही अवीन्याशी हित कर्ता है. और द्रव्य सजनादी कोइभी हितकर्ता नहीं हैं. क्यों कि अन्यपदार्थ, मनको विकल्प उपजाते है, और अनेक प्रकारका दुःख देते है. ऐसा जान सर्व बाह्यवस्तुओंसे ममत्व उतार, एक आत्मापेही जो द्रष्टी जमावेगा. वोही आत्म तत्वकी खोज कर निजानंद-सहजानंद सुखको प्राप्त होगा. . ५“अन्यत्वे-भावना” जगत्में रहे हुये कि नेक सजीव पदार्थोंको कुटुम्ब समजते हैं. और किनेक अजीवको सहायक मानते हैं. परंतु वो सर्व कर्माधीन और कर्ममय हैं. वो बेचारे आपही सुखी होने सामर्थ्य नहीं हैं, तो अपनेको क्या सुख देगे. वो अपनेही विनाशले बच नहीं सक्ते हैं, तो अपनेको क्या बचायंगे. इत्ने काल जो इस जीवने संसारमें दुःख पाया, वो सब उन्हीका प्रशाद
SR No.006299
Book TitleDhyan Kalptaru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherKundanmal Ghummarmal Seth
Publication Year
Total Pages388
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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