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________________ २०४ ध्यान कल्पतरू. क्यों कि आसण यह अभीमान जनक हैं, और अभिमान ज्ञानका शत्रु हैं. और सूता हुवा ज्ञान ग्रहण कर से. अविनय और प्रमाद होता है. यह ज्ञानके नाश करनेवाले हैं, इस लिये जब प्रश्न पूछनेकी या ज्ञान ग्रहण करनेकी इच्छा होय, तब, आसन अविनय मान और प्रमादको छोडके जहां गुरू महाराज विराजे होयँ उनके सन्मुख नम्रता युक्त आवे, और दोनो घुटने जमीको लगा, दोनो हाथ जोड मस्तकपे चडा, तीन बक्त (उठ बेठ) नमस्कार करें, और दोनो घुटनें जमीनको लगाये, दोनो हाथ जोडे, नमा हुवा सन्मुख रहके, उच्च बहुमान बचनोसे प्रश्नोत्ल करें, सूत्र अर्थादिक दिल चायसो पूछे और क्या उत्तर मिलता है. ऐसी उत्कंठा युक्त एकाग्र उनके सन्मुख द्रष्टी रख, वो फरमावे सो, जी तहत, बचनसें ग्रहण करे, जिल्ला अपनको याद रहे, उनाही ग्रहण करे. ज्यादा लोभ नहीं करे. ऐसी तरह विनय युक्त पूछनेसे, गुरु महारा जनें अपने गुरू के पास से जैसा ज्ञान धारन किया. वैसाही उसे देवेंगे ( पढायेंगे). जो सद्गुरुके पाससे ज्ञान गृहण किया है, उसकी पुनरावृत्ती करते (फेंरते) किसी तरह की शंका उ त्पन्न होवें, या कोई शब्द विस्मरण हो गया ( भूल
SR No.006299
Book TitleDhyan Kalptaru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherKundanmal Ghummarmal Seth
Publication Year
Total Pages388
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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