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प्रथमशाखा-आर्तध्यान.
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प्राप्र हो जाती है, तो भी इच्छा-त्रष्णा त्रप्त नहीं होती है. भृतृही ने कहा है की-"स्तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णा" अर्थात् वय जीर्ण [बध] होगइ परंतु तृष्णा-वांच्छा जीर्ण न हुइ. क्यों कि इस श्रेष्टी में, एकेक से अधिक २ पदार्थ पडे हैं, वो सब एकही जीवकों एकही वक्तमें तो प्राप्त होही नहीं शक्ते हैं. प्राप्त हुये विन, तृष्णावंतकी तृष्णा भी शांत नहीं होतीहै. और तृष्णा शांत हुये विन दुःख नहीं मिटता हैं. इस विचार से निश्चय होता है की, आर्त ध्यान सदा एकांत दुःखही का कारण हैं. जैसा यह इस भवमें दुःख दाता है; इससेभी अधिक परभव में दुःखप्रद समजीये. क्यों कि जो प्राप्त वस्तुपे अत्यंत लुब्धता रखता है, जिससे उसके बज्र (चीकणे) कर्म बंधते हैं. वो कर्म फिर दुर्गतीयों में, ऐसे दुःख दाता होयंगे की, रोते २ भी नहीं छूटेंगे. ऐसा विचार, सम्यक द्रष्टी श्रावक साधू इस आर्तध्यानका त्याग कर, सुखी होनेका उपाय करे. ___यह आर्तध्यान सकी जीवोंके साथ अनादी