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________________ ध्यानकल्पतरू. सुख देख झुरना पडता है. आर्त ध्यान ऐसी पकी मोहब्बत करता है, की भवांतरोकी श्रेणियों (भव-भ्रमण) में साथही बना रहता है; प्रीती नहीं तोडता है,(२)और आर्त ध्यानी प्राप्त हुये भोग सुखपे अत्यंत लुब्ध (अधी) होता है. (देवादिक के सुख अनंत वक्त भुक्त के भी ऐसा समजता हैं) जाणें ऐसी वस्तु मुजे कहींभी न मिली थी, ऐसा जाण, उसको क्षिणमात्रभी अलग नहीं करता है. ऐसी अत्यंत अशक्तताके योगसे, इस भवमें सूल सुजाक, गर्मी, चितभ्रमादि अनेक रोगोंसे पीडित हो, औषध पथ्यादीमें संलग्न हो, प्राप्त हुये पदार्थ भोगव नहीं शक्ता है. घरमें रही हुइ सामुग्रीयोंकों देख २ झुरताही रहता है. इस रोगसें कब छुटूं, और इनका भोग लेवू. !! (३)औरभी आर्तध्यानीकों, जो वस्तु प्राप्त हुइ है, उससे दूसरी वस्तु अधिक श्रवण कर, या देख, उसे प्राप्त करनेकी अभीलाषा होती हैं; यों उत्रोत्र वस्तुओं भोगवनेकी अभीलाषही अभीलाषा में, उसका जन्म पूरा हो जाता है; वृधवस्था
SR No.006299
Book TitleDhyan Kalptaru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherKundanmal Ghummarmal Seth
Publication Year
Total Pages388
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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