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ध्यानकल्पतरू.
विचार होवे की- इनका वियोग कदापी न होवो. इसे भोगीच्छा आर्त धान कहना.
प्रथम पत्र-“अनिष्ट संयोग”.
१ “अनिष्ट संयोग नामें आर्त ध्यान,” सोजीवनें अपने सरीरकों, स्वजन स्नेहीयादि कुटम्ब कों, सुवर्णादि धन्नकों, गोधुमादि (गहूआदि) धान्य (अनाज) गवादि (गायादि) पशु,और घरादिकों अपने सुख दाता मानलिये हैं. इनके नाश करनेवाले, सिंह-सर्प-बिच्छू-षटमल-ज्यूकादि जानवर, शत्रू चोर- नृपादि मनुष्य, नदी-समुद्रादि जलस्थान, अग्नी, वच्छनाग-अफीमादि विष, तीर-तरवारादि शस्त्र, गीरी-कंदरादि, मृतिकास्थान; तथा भूतादि व्यंतर देव; इत्यादि भयंकर वस्तुके नाम श्रवणकर, स्वरूप अवलोकन (देख) कर, या स्मरण होनेसे, तथा प्राप्त होनेसे. मनको सकल्प विकल्प (घबरावट) होवे. तब इनके वियोगकी इच्छा करे की, ये मेरा जीव लेने क्यों मेरे पीछे लगे हैं; मुजे क्यों सतारहे हैं, हे भगवान! इनका शिघ्र नाश होवे तो बहुतही अच्छा; ऐसा चिंतवन करे उसे तत्वज्ञ पुरु