________________
तृतीयशाखा-धर्मध्यान. २३३ ।। जब जीवोके देखते पदार्थोका नाश होता है, तो जीवकोही पश्चाताप होता है, की हाय मेरे प्राण प्या- . री वस्तु कहां गइ. और पदार्थ छोडके जीव जाता है तवही वोही रोता है, की हाय इस सायवी को छोड अब में चला न की वो पदार्थ रोयंगे. की मेरे मालक कहां गये. क्यों कि उनके मालक वणने वाले अनेक बैठे है. ... ऐसा समज है सुखार्थी धर्मार्थी जीवो! इस अनित्यानुप्रेक्षा के सत्य विचार से अनित्य अशाश्वत वस्तु से ममत्व त्याग, निजात्म गुण ज्ञानादी नीरज नित्य शाश्वत, अक्षय अनंत उनमें रमण कर सुखी बनो.
द्वितीय पत्र-“असरणाणु प्रेक्षा'
साद्वाद मतमे हरेक तर्फ अनेकांत द्रष्टीसें देखा जाताहैं, निश्चयमें तो कोई किसीकों सरण कादाता आ श्रम का देने वाला नहीं है क्योंकि सर्व द्रव्य अपनीर शक्ती के बलसे ही टिक रह हैं, इस सबबसें कोइ कि सीका कर्ता हर्ता नहीं है, व्यवहार द्रष्टीसें फक्त निमित मात्र यह जीव दुःख, कष्ट उत्पन्न हुथे, अन्यके सरण