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________________ २३४ थ्यामकल्पतरू. की अभीलाषा करते हैं; मेरी वस्तुका नुकशान न होय या मेरेपर किसी प्रकार का दुःख आके नहीपडे, इस लिय कोइ तारण-सरण आश्रय कादाता होय उनका सरण ग्रहण करु, कीजिससे मुजे किसी प्रकारकादुःख नही होय इत्यादी विचार से अन्यन्य अनेक का सरण ग्रहण करता है, परन्तु यों नहीं विचारता है की जिस दुःख से बचने मे आश्रय सरण ग्रहन करता हूं, वो खुदही इस दुख से बचे हैं क्या? क्यों कि जो आप दुःखसे बचे होंगे, तो दुसरेकोभी बचा सकेंगे, और जो आपही की रक्षा नहीं कर सके तो, अन्यकी क्या करेंगे. फिर व्यर्थ उनके सरण ग्रहण करने में क्यासार है, अब विचारिये अपन जिन २ का सरण ग्रहण कर ते हैं. वो योग्य है या अयोग्य, ऐसा प्रथक २ (अलगर) विचारीये. हे जीव! तूं इस सरीर करके तेरा रक्षण च. हाता हैं, तो देख! यह सरीर मुद्गल पिंड क्षिण २ में नष्ट होता है. आधी व्याधी उपाधी कर भरा हुवा है. वारम्वार रोगों कर ग्रासित जरा कर पिडित, और मृत्यूका भक्षक बनता है. यह अपनी रक्षा नहीं कर सक्ता है, तो तेरी क्या करेगा. इस लिये सरीर कों तरण सरण मानना व्यर्थ है, जो तूं तेरे परिवार और
SR No.006299
Book TitleDhyan Kalptaru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherKundanmal Ghummarmal Seth
Publication Year
Total Pages388
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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