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________________ ३३० ध्यानकल्पतरू. और दूसरे पाये से आगे बढते हैं.)के उसी वक्त केव ल ज्ञान और कैवल्य दर्शनकी प्राप्ती होती हैं [कैवल ज्ञान की महिमा] यह केवल ज्ञान अपूर्व है अर्थात पहले कधीही प्राप्त नहीं हुवा, अवलही पायेहै. केवल ज्ञानी सर्वज्ञसर्व दर्शी होते हैं. सर्व लोका लोक, वाह्याभ्यतर; सुक्ष्मबादर, सर्व पदार्थ हस्तावल की तरह जानते देखते हैं, त्रिकाल के होतब को एकही स. मय मात्र में देखलेते हैं, अनंत दान लब्धी भोग लब्धी उपभोगलब्धी, लाभलब्धी, और बल वीर्य (शक्ती) लब्धी, की प्राप्ती होती है. उसी वक्त, देविन्द्र मुनिन्द्र (आचार्य) उनको नमस्कार करते हैं. [और जो उनो ने पहले के तीसरे भवमें, तीर्थंकर गोत्र की उपारज ना करी होय तो] उसीवक्त समव सरण की रचना होती हैं. उसके मध्य भाग में३४ अतिशय करके वि. राजमान होते हैं. और३५गुण युक्त वाणी का प्रका श करते हैं; उस वाणी रूप सूर्य का उदय होने से, मिथ्यत्व तिम्र (अन्धकार) का तरिक्षण नाश होता हैं और भव्य जन रूप कमलो का बन पर फूलित होता हैं, उनके सौध श्रवण से, हलु कर्मी जीव सूपन्थ ल गके भव भ्रमणरूप या संचित पापरूप कचरेको जला . के भस्म करते है और मोक्ष के सन्मुख हो मोक्ष को
SR No.006299
Book TitleDhyan Kalptaru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherKundanmal Ghummarmal Seth
Publication Year
Total Pages388
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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