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________________ चतुर्थशाखा-शुक्लध्यान. ३२९ तीसरे में यो योगों का पटला होताही रहताहै. विचा र पटलनेसे ही, पृथक वितर्क ध्यान इसका नाम हैं. ८, ९, १०, ११, इन गुण स्थानमें मुनीको होता हैं. इस ध्यानसे चित शांत होजाताहें, आत्मा अभ्यंत्र द्र ष्ठीको प्राप्त होता हैं, इन्द्रियों निर्वीकार होती हैं, औ र मोह का क्षय तथा उपसम होता हैं.. द्वितीय पत्र-“एकत्व वितर्क, ५एकत्व वितर्क इस का विचार पहले पाये से उलट हैं, अर्थात पहले पाये में पृथकर (अलग२)वीतर्क तर्को कही, और इसमें एकत्व ऐक्यता रूप वित के तर्कों है. यह विचार स्वभावीक होता हैं, इस पाये वाले ध्यानीयों का विचार पटता नही हैं, ए क द्रव्य कों व एक पर्याय को व एक अणुमात्र कों, चिन्तवते, उसीमें एकाग्रता लगावे, मेरू परे स्थिरी भूत हो जावें. यह ध्यान फक्त १२मे गुण स्थान में होता है, इस ध्यान में संलग्न हुये पीछे, क्षिणमात्र में मोह कर्म की प्रकृतियों का नाश करे; उसही के साथ ज्ञान वरणिय, दर्शना वर्णिय, और अंतराय, यह तीनही कर्म प्रलय होजाते हैं. अर्थात चारही घन घाती कर्म क्षपाते हैं, (यहां तेरमा गुण स्थान प्राप्त होता हैं
SR No.006299
Book TitleDhyan Kalptaru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherKundanmal Ghummarmal Seth
Publication Year
Total Pages388
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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