SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 239
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान. २१३ भोगवते है. क्षेत्र वेदना परमाधामीकी वेदना वगैरे वरणन करें, क्षिणिक सुखके लिये. सागरोपमका दुःख पावे. इत्यादी रीत समजाणे से वो पापको छोड धर्म मार्गमें उधमवंत होवे. [३] "न पेम रागो परमत्थी बन्धा" अर्थात जगतमें प्रेमराग (स्नेह फास) जैसा और वन्धन नहीं है, प्रेम रागरूप फासमें फसे जीव अपना सुख दुःख, भले बुरेका विचार नहीं करते. स्व जन मित्रका पोषण करने. अनेक आरंभ करते है, प. रन्तु उनकी स्वार्थता को नहीं पहचानते हैं. देखीये, जब 'कुंकू पत्री देते हैं. तब कित्ना परिवार भेला हो ता है, ऐसेही संकट पडे तब, स्वजनकी सहायता लेने 'संकट पत्री' देवो तो किल्ने स्वजन आयंगे* अजी! आने तो दूर रहे, परंतु माल खाने वाले ही कहेंगे की क्या लड्ड किये विन नाक जाता था ? इ. त्यादी कह उलटा अपमान करते है, ऐसे मतलबीयों को पोष, पापका भारा अपने सिरले, नर्क तिर्यचादी गति में किये, कर्म के फल एकलेही * एक मराठी कवीने कहा हैः-संपदा बहु आलीयावरी, सोयरे जमा होती त्या घरी । गेलीयास ती रुष्ट होउनी, बंधू सोयरे . . . जाती सोडूनी..
SR No.006299
Book TitleDhyan Kalptaru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherKundanmal Ghummarmal Seth
Publication Year
Total Pages388
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy