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________________ २१२ ध्यानकल्पतरू. भता बतानेकी चोरासी लक्ष जीवा योनीमें अनंत परिम्रमण करते महा पुण्योदय से सब भवभ्रमणका नाशका करने वाले, मनुष्य जन्म, शास्त्र श्रवण, शुद्ध श्रधा और धर्म स्पीनेकी समग्री, महा मुशीबतसे मि ली है. इसे व्यर्थ गमा देगा, उसे किना पश्चताप क. रना पडेगा? और ऐसी वक्त जो काम करनेका है. वो कर लिया तो कैसा आनंद पावेगा? इत्यादी बात से बैराग्य प्राप्त कर धर्ममें संलग्न करे. [२] अल्पज्ञ जीवोंकों लालच लगने से धर्म बृधी करेंगे, ऐसे अवस रं पे देवादिक की ऋधि की भोगकी, वैक्रयादी शक्ती दीर्घ आयुष्य, निरोगता, अहार वगैरे की वरणन करे. जो विशेष, और निर्दोष, धर्म करते हैं, उनको उत्तमो त्तम सुख मिलते हैं. और जो संसारकी काम भोगमें लुब्ध रहते हैं. पापरंभ करते है. वो नर्कमें जाके दुःख ....णिञ्चेदर धाउ सत्तय, तरुदश वेय लिंदिया सु छब्बेव. सुरणिरय तिरियच उरो, चउदश मगुये सु सद सहस्सा. अर्थ--७ लक्ष नित्य नांगोद. ७ लक्ष इतर निगोद. ७ लक्ष .. पृथवी. ७ लक्ष पाणी, ७ अग्नी. ५ लक्ष वायु. : १० लक्ष प्रत्येक . विसास्तति. २ लक्ष केंद्रीः २. लक्ष तेंद्री २ लक्ष चौरिद्री, ४ लक्ष न ४ लक्ष देव ४ लक्ष तिर्यंच पचेंद्री; १४ लक्ष जात मनुष्य को यह ८४ लक्ष सब जाती है
SR No.006299
Book TitleDhyan Kalptaru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherKundanmal Ghummarmal Seth
Publication Year
Total Pages388
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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