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५४ ध्यानकल्पतरू. अच्छा मालम पडे उसेही अङ्गीकार करे, स्विकारे.
अशुभ ध्यानमें प्रवृती तो बिना प्रयास स्वमाविक रीतसेही होती हैं. क्यों कि उसका अनादी सम्बंध है. परंतु शुभध्यानमें प्रवृती होनी बहुतही मुशकिल हैं. क्यों कि कोइभी शुभ कार्य सहजमें नहीं बनता हैं, शुभ ध्यानके लिये अब्बल सम्यक्त्वकी जरूर है, क्यों कि सम्यक्त्वी ही शुभ ध्यानमें प्रवेश क. रने स्मर्थ होते हैं. इस लिये अव्वल ह्यां सम्क्त्वकी दुर्लभता बतातें हैं.
सम्यग दर्शन उपजता हैं सो, अनादी वासादी मिथ्यात्वीके उपयता है. परन्तु सज्ञी-पर्याप्ता-मंदकषाइ भव्य-गुण दोषके विचारयुक्त सकार उपयोगी (ज्ञानी) और जग्रत अवस्था बाला; इन गुणयुक्तको सम्यक दर्शनकी प्राप्ती होती हैं; परं इनसे उल्ट, असज्ञी अप्रर्याता तीब्रकषायी अभव्य दर्शना उपयोगी, मोह निद्रासे अचेत और समुर्छिम, इनकों नहीं उपजता हैं;
और पंचमी करण लब्धी भी जो उत्कृष्ट करण लब्धी अनिवृती करण, उसके अंत समयमें प्रथम उपशम सम्यम्य प्रगट होता हैं.