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२९३ ध्यानकल्पतरू. वैराग्य आत्मज्ञान गार्भत. अध्यात्मिक, शांतादी रस से भरपूर. इत्यादी जो स्वव्याय परियणा रूप ज्ञान फेरना सो सब पदस्थ ध्यान जागना
अनुभव युक्त पदस्थध्यान ध्यानेसे जीव परमो त्कष्ट रस में चडाहुवा महा निर्जरा करता है
द्वितीय पत्र पिण्उस्थध्यान
२ पिण्डस्थध्यान=पिंड=सरी में. स्थरहीहुइजो आत्मा उसकी भिन्नता का चिंतबणा सो पिणुस्थ ध्यान.
गार्भत पुद्गल पिण्डमें, अलख अमूर्ती देव. फिरे सहज भव चक्रमें, यह अनादी टेव.
अर्थात्-यह पिण्ड [सरीर] सप्त [७] धातूओं करके बना हुवा. महा अशुचीका भंडार, क्षिण २में पर्या यका पलटने वाला. मृगापुत्रके फरमान मुजब “वाही रोगाण आलए" अर्थात्-आधी [चिंता] व्याधीं[रोग] उपाधी [दुःख का घर, ऐसे सरीरमें अलख-जो लक्ष [अकल] में जिसका गुण न आवे. (समावे) ऐसे और अमूर्ती जो देखनेमे न आवे, ऐसे देव विराजमान हैं परन्तु अनादी कालसे जिनका फिरनेकाही स्वभाव
"हे" यह पदस्थ ध्यानका बीज मंत्र' है.