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________________ ___ तृतीयशाखा-धर्मध्यान. २२१ . अर्थात्-धर्म ध्यानीकी चार अनुप्रेक्षा भगवंतने फरमाइ सो कहे हैं, धर्म ध्यान ध्याता महात्मा चार प्रकार अनुप्रेक्षा उयोग युक्त विचार करते है. सो ९ अनित्यानुप्रेक्षा. २ असरणाणूप्रेक्षा. ३ एकत्वानुप्रेक्षा. और ४ संसारानुप्रेक्षा. प्रथम पत्र-“अनित्यानुप्रेक्षा" धर्मास्ति यादी छ षट द्रव्य रूप लोक का, द्रव्य द्रष्टिसे अवलोकन करने से छहो द्रव्य, अपने २ गुण में. व स्वरुप. शाश्वत (नित्य) हैं. परंतु इन्की पर्याय (अवस्था) स्वभाव विभाव रुप. उत्पन्न होती हैं, नाम धर्मास्ति अधमास्तिमाकास्ति कालास्ति जोयास्ति पुलारिस्त एक । एक एक | अनंत | अनंत अनंन । असंख्यप्रदेशा असंख्यप्रदेशी अनंत प्रदशा असंख्यपदेशामध्यप्रदेशाअनंत प्रदेश ... क्षेत्रसे लोक प्रमाणे लोक प्रमाणे लोका लोक प्र. अढाइ द्विप प्र. लोक प्रमाणे | लोक प्रमाण कालसे अनादी अनंत अ. अनंत | अ. अनंत | अ. अनंत | अ. अनंत [अ. अनंत भावसे, अरूपी | अरूपी | अरूपी | अरूपी | अरूपी | । चितन्य, अचैतन्य, अअवतन्य, अतन्य गुणसे | क्रिय. गात क्रिय, स्थिती क्रिय, अवगा तिक्रिया अवगा अवतन्य, दर्शन चारी अनत शान सक्रिय पूर्ण सहाय | महाय । हादान यवतमान त्र, वीर्य । गलन
SR No.006299
Book TitleDhyan Kalptaru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherKundanmal Ghummarmal Seth
Publication Year
Total Pages388
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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