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________________ द्वितीयशाखा-रौद्रध्यान. २३ स्मर्थता पाये हैं; होन, दीन, दुःखी हुये हैं. एकेद्रीयादी अवस्था प्राप्त हुई हैं, अहो निश सुखके इच्छक हैं; और यथा शक्त सुख प्राप्तीका उपाय करने खपते हैं, उन बेचारे जीवोंकों, अर्थे (मतलबसें) अनर्थे (विना कारन) दुःख देना, सताना, या उनकों दुःखसे पीडाते हुये देख हर्ष मानना, सो रौद्र ध्यान, एकेन्द्रीयसे लगा पचेन्द्रीय जीव पर्यंत कीसीभी जीवोंको, या जीव युक्त किसीभी पदाथोंको, स्वयं अपने हाथसें, तथा पर दूसरेके हाथसे, प्राण रहित करते देख, टुकडे २ करते देख, लोहकी श्रांखल बेडीमें बन्धनमें डालते देख, रस्सी सूत शणादिक से बांधते देख, कोटडी भूबारे (तल घर) करागृह (केदी खाने) में, कब्ज किये देख, करण, नाशीका, पूंछ, सींग, हाथ पांव, चमडी, नख, वगैरे किसीभी अंगोपांग काछेदन भेदन करते देख, कत्तल खानेमें बेचारे जीवोंका, बध करते समय, उनका अक्रांद श्रवण कर, उनके अंगके टुकडे तडफडते देख, वगैरे अनेक तरह, जीवोंको दुःख देते, या बध करते देख, आ
SR No.006299
Book TitleDhyan Kalptaru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherKundanmal Ghummarmal Seth
Publication Year
Total Pages388
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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