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________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान. २४१ एसा निश्चय कर, है सुखार्थी जनो, इस दुर्लभ मनुष्य जन्मादी समग्री को अन्यके सरण के ला. लच में पड मत गमावो निश्चय करो की,, इस जगक्तका कोई भी पदार्थ मेरा रक्षक नहीं हैं; सब भक्षक है, एसा जान उनपेसे ममत्व त्याग -तरण तारण, दुःख निवारण, निराधार के आधार गरीबनिवाज, महा कृपाळु, करूणा सागर, अनंत दुःखा से उधार के कर्ता विक्राल काल व्याल के दुःख के हरता. अनंत अक्ष अजर अमर अविन्याशी अतुल्य सुख रूप मोक्ष स्थानके दाता व्यवहारमे तो श्री अहंत सिद्ध आचार्य उपध्या और साधू यह पंच प्रमैष्टी हैं. और निश्चय में अपने आत्मा गुण ज्ञानादी त्री रत्न की शु. द्धता हैं जिनका अश्रय-सरण ग्रहण कर है, अजरामर आत्मा परमानंदी परम सुखी बन!! तृतीय पत्र-"एकत्वानुप्रेक्षा" जैसे सुवर्णका और मट्ठीका अनादी सम्बन्ध होनेसें दोनो एकही रुपमे दिखते है अर्थात् सुवर्णभी लाल मट्टि जैसा दिखता हैं परन्तु है दानो अलग २, जो दोनो एकही होय तो मट्टी मेंसे सुवर्ण जुदा निकले नही..
SR No.006299
Book TitleDhyan Kalptaru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherKundanmal Ghummarmal Seth
Publication Year
Total Pages388
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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