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________________ ध्यानकल्पतरू. विचार करते हैं की घटासे अच्छादित अभ्रयुक्त अन्धारी रात्रीमें, ऋष्ण वस्त्र धारण कर, गुप्तपने जा, क्षात्रदे, द्रव्य लादूंगा. क्या मगदूरहै कोइ सामने आय, मैं शस्त्र कलामें ऐसा प्रवीन हूं की-एक झटकेमें, बहुतोंके बटके (टुकडे).ऐसा सटकु की किसकी माने दूध पिलाया हैं, जो मुजे पकडे. में अनेक विद्याका जानहूं, सबको निद्रा ग्रस्त कर सक्ता हूं. बडे २ जंजीर और तालोंको एक कंकरीसे तोड सक्ता हूं. शैन्यको स्थंभन कर सक्ता हूं. अंजन सिद्विसे पाताल का निध्यान,गुप्तद्रव्य, और अंधकारने प्रकाश तुल्य देख सक्ताहूं- इत्यादि अनेक कलाका धरनहार में हूं. क्या मगदूर कोइ मेंरी बरोबरी कर सके. हजारों सुभट मेरे हुकममें हैं, वो भी मेरे जैसे कलामें पूर, और सूर वीर हैं. मेने बडे २ नरेंद्रोको धुजादीये हैं. अब मे थोडेही कालमें, इश्वरो (मालकों) का संहार कर, सर्व ऋधिसिद्धीका श्वामी बन, निश्चित मजा भोगदूंगा. अमुक स्त्री महा रुपवंत हैं, उसकाभी हरण कर. अमुक भूषण, वस्त्र, पाल, पशु. मनुष्य, इन सर्व उत्तम पदार्थोंको, मेरे स्वाधीन कर, उनके उपभोगसे मेरी आत्मा त्रप्त करूं, इत्यादि विचार अंतःकरणमें होवे सो तस्करनुबन्ध
SR No.006299
Book TitleDhyan Kalptaru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherKundanmal Ghummarmal Seth
Publication Year
Total Pages388
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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