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________________ 39SON द्वितीयशाखा-रौद्रध्यान. ३५ तृतीय पत्र-“तस्करानुबन्ध”. ३ “तस्करानुबन्ध रौद्रध्यान” सोSH यच्चौर्याय शरीरिणा महरहश्चिन्ता समुत्पद्यते, कृत्वा चौर्यमपिप्रमोदमतुलं कुर्वन्तियत्संततम्; चौर्येणापि हतेपरैः परधने यज्जायते संभ्रमस्तच्चौर्यप्रभवंवदन्ति निपुणा रौद्रंसुनिन्दास्पदम् ज्ञानार्णव. अर्थ-चोरी करनेकी सदा चिन्ता रहे; चोरी करके अति हर्ष माने; अन्यके पास चोरी करा, लाभकी प्राप्ती हुइ देख, खुशी होवे; चोरी कर्ममें, कला कौशल्यता बतानेवालेकी प्रसंस्या करे; इत्यादि विचार करे सो तस्करानुबन्ध रौद्रध्यान अति निंदनिय हैं. ___ जीव तृष्णा रूप विक्राल जालमें फसे हुये, सर्व जगतकी अन्न, धन्न, लक्ष्मी, कुटंब की ऐश्वर्यता (मालकी) किये चहाते हैं, परंतु इत्ने पुंन्य करके नहीं लाये की, सर्वाधीपती बने? और अमादी (आलसी) ओंसे मेहनत करके, द्रव्योपारजन करना तो बने नहीं, तब सीधा द्रव्य मिलाके इच्छा त्रप्त करने, पापोदय से उनकों चोरी सिवाय, दूसरा उपायही कोनसा दिखे, इस हेतूसे, वो चौरीयानुबन्ध रौद्र ध्यानमें चडते हैं,
SR No.006299
Book TitleDhyan Kalptaru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherKundanmal Ghummarmal Seth
Publication Year
Total Pages388
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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