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________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान. २२९ चांहीज प्रलय पाता है, या रह जाता है, और आंप आया था वैसाही, इकेला जीव आगेंको चला जाता है, ऐसा तमाशा एकही वक्तमें पूरा नहीं होता हैं; परन्तु अनंत काल से येही रीत चली आती है, और चली जायगा, मिलना और विछडना, येही पुगलोंका धर्म हैं, सोही वना रहगा ! अच्छा का बुरा और बुरा का अच्छा; नवा का ज्यूंना और ज्यूंनाका नवा; कोइ प्रतक्षताले और कोइ परोक्षता (छुपी रीत ) सें, पूनलों का रूपांत्र होनेका जो स्वभाव है, वो होयाही करता है, यह तमाशा देखते हुये भी इसे नित्य मान लुब्ध हो रहे है, इससे ज्यादा अश्चर्य और कोनसा होय ? . मुढ प्राणी का आयुष्य ज्यों ज्यों हीन स्थिती को प्राप्त होता है, त्यों त्यों ममत्व और पापकी वृद्धी करता हैं, और उनके फल भुक्तने आपभी रूप पा के रौरव नर्कमें गिरता है. तब असाझ दुःखसे घबरा कर रोता है. . शीतलता, और विष तैसेही आत्म घाती जन पुद्गल के संगसें सुख चहाते हैं. इन अज्ञको कैसे समजावे. भाइ ! अनी स्नानसे भक्षणसे अमरत्व चहाते हैं,
SR No.006299
Book TitleDhyan Kalptaru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherKundanmal Ghummarmal Seth
Publication Year
Total Pages388
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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