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२२८ . थ्यामकल्पतरू. बस्तके साथ रक्खी, तोभी नहीं रहनेकी, पुण्य खूटेसे हाथसे रक्खा हुवा धन रूपांत्र पाके कंकर कोयले पाणी या साँप, बिच्छू जैसा दिखने लगता है, ऐसी लक्ष्मी -अनित्य है....... - तैसें घर भी अनित्य लकड मट्टी के संयोगसे बना उसे अपना मानके बैठे है, येही जीर्ण होनेसे बिखर जायगा, केइ घर या ग्रामादी नवीन वसते है. केइ उजड़ होते हैं, विनशते हैं, यह प्रतक्ष अनित्यता दिखती है. ऐसेही उपभोग, ( एक वक्त भोमवने में आवे अन्न पुष्पादी) और परिभोग (वारंवार भोगवने में आवे वस्त्र भुषणादी) यह भी अनित्य हैं, क्षिाणक है. सर्व वस्तु उत्पन्न हुइ के उनकी पर्यायमें फरक पडना सुरू होता है; विनाश कालतक फरक पडते २ उसका स्वरूप ही और हो जाता हैं. यह अनित्यता की प्रतक्षता हैं.
प्रतक्ष देखते है की, जीव आता है, तब वह रूपमें कुछभी साथ लेके नहीं आता है, उत्पन्न हुये पीछेही सरीर संपत्ती आदी संजोग मिलता है, और फिर वोभी 'पंच समवाय' प्रमाणे हीम होते२, सब
... * काल-स्वभावः भव्यतव्य-कर्म-और उद्यम, इन समवाय के संयोगसे सर्व कार्य होते हैं.