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___२४४ . ध्यानकल्पतरू. .. मद रूप मदिराके नाशमें छक्क हो. कर्म रूप उकरडा भोग (विषय) रूप अशुचीसे भरे हुयेपे लोटता हुया आनंद मानता है, और विषय विरक्त सब्दोधकको मूर्ख जान, उनके उपदेशका अनादर करता है, और वोही जीव सत्संगतादी प्रसंगसे मोह नशा उतरनेसे शुद्धी में आ, अज्ञा दिशामें कृत कर्मका पश्चाताप कर, तुर्त विषय विरक्त हो एकी भाव को अङ्गीकार करता हैं.
जैसे बचपनसे बकरीयोंमे उछरा हुवा सिंहका बच्चा, अपनी जाती को भूल, अपन को बकराही मान रहाथा. और बनमें सच्चे सिंहके दर्शन और सहाधसें बकरीयों का सङ्ग छोड. स्वच्छारी एकला हुवा, ऐसेही जीव अनादी कर्म सम्बन्ध में अपना निज स्वरूप भल कर्म जनित पदार्थ सरीर संपत्ती आदीको अपनी समज रहा है, जब सदर के सहौध का सम्बन्ध में अपना आत्म भान प्राप्त हुवा, तब जानने लगा की, मै चैतन्य, आधी व्याधी, उपाधी, करके रहित हूं, यह सरीर, संपत्ती, तीनही दुःखोसें व्यास हैं, मै निराकार हूं, यह साकार हैं, मै शुद्ध शुची हुं. यह अशुची अ. शुद्ध है, मै अजरा मर हूं. यह क्षणिक विन्याशी है. मै अनंत ज्ञानादी गुण युक्त चैतन्य हूं. यह जड है. इत्यादी किसी भी प्रकारसे इनका मेरा सम्बन्ध नहीं