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________________ १६४ ध्यानकल्पतरू. _५१ प्र-दयाल कायसे होय ? इ-हिंशक की संगत वर्जे, हिंशक को उपदेश दे दयावंत बनावे, आजीवका दे हिंशा कर्म छोडावे. सो दयावंत होवे. ५२ प्र-अनाचारी कायसें होवे ? विकल भाव रक्खे, अशुद्ध, अभक्ष वस्तु भोगवे, आचारवंतकी निंदा करे, अनाचार सेवनमें आनंद माने. अनाचारीयोंका सहवास करे, अनाचारको भला जाने, सो अनाचारी होवे. - ५३ प्र-शुद्धाचारी कायसे होय? अनाचारीयोंको शुद्धाचारी बनावें. अनाचारकी ग्लानी करे, शुद्धाचा. रीकी सेवा परसंस्था करे, अभक्षको त्यागे. नितीमें प्रवृते, तो शुद्धाचारी होवे. ५४ प्र-भाइयोंमें विरोध क्रायसे होवें? उ-हाथी, घोडे, भेंसे, मेंढे, कुत्ते, मुर्गे, वगैरें जानवरोकों आपस में लडावे. या लढाइ देख हर्षावे, तो भाइयों में विरोध (लडाइ) होवे. __ ५५ प्र-भाययोंमें संप कायसे रहे? मनुष्यों पशूवोके झगडे मिटावे, संप करावे, संप देखके खुश होवें संप रहने उद्यम करे, सो भाइयोंमें स्नेह होवे. __ ५६ प्र-अंत्तरद्वीपेमे किस कर्मसे उपजे ? उ-मिथ्यात्वी साधू आदी को दान देवें, उत्तम साधू ओंको
SR No.006299
Book TitleDhyan Kalptaru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherKundanmal Ghummarmal Seth
Publication Year
Total Pages388
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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