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ध्यानकल्पतरू.
नर रत्न उत्पन्न हो धर्मदीपाते हैं. यह महा पुरूषों सदा जयवंत रहो. ऐसा विचार, उन्का सत्कार स. न्मान करे. साता उपजावें. दूसरे को उनकी भक्ती करते देख, हर्ष पावे; सो प्रमोद भावना..
३ करूणा भाव'- जगत्वासी जीव कर्माधीन हो अनेक कष्ट पाते हैं. कित्येक अंतराय कर्मकी प्रबलतासे, हीन, दीन, दुःखी होरहें हैं. खान, पान, वस्त्र, गृह, करके रहित हो रहे हैं, किनेक वेदनी कर्मकी बृधी होनेसे, कुष्टादि अनेक रोगों करके पिडित हो रहे हैं. कित्नेक काष्ट-खोडा बेंडी आदी बंधनमें पडे हैं, किल्नेके शत्रुओंके ताबेमें पडे हैं, किनेक शीत, ताप, क्षुद्या. वषादी अनेक विपति भोगवते हैं. किल्लेक अ. न्धे, लूले, लंगडे,बधीर, मुक्के, मुंगे, आदीअंगोपांग रहित हो रहे हैं, कित्नेक पशू, पक्षी, जलचर, बनचर, हो प्राधीनता भोगवते हैं; बध, बंधन, ताडन, तर्जना स. हन करते है, हिंशकोंके हाथ कटते है. इत्यादि अनेक जीव, अनेक तरहकी विपति (दुःख) भोगवते हुये;सु खके लिये तरसते हैं. हमें कोई सुखी करो! जीवत्व दान देवो! दुःख, संकटसे उगारो! वगैरे दीन दयामणी प्रार्थना करते हैं. उन्हेदेख दुःखीहोय, करुणा लावे