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________________ ध्यान कल्पतरू ऐसेही किनेक साधूओंका, शरीर दुर्बल देख कोइ पूछे महाराज आप तपस्वी हो, तब तपस्वी न होने परही कहे की हां! साधू तो सदा तपस्वी होतें हैं, सो तपका चोर. ऐसेही शुद्धाचारविन, मलीन, वस्त्रादी धारण कर, आचार वंत बजे, श्वेत बाल होनेसे स्थैवर (बुध) बजे, रूपवंत हो राजऋधी त्यागनेवाला बजे, क्रूर प्रणामी होके, दांभिक पणेसे, वैरागी बजे वगैरे धर्म ठगाइ कर, आनंद माने सोभी तस्करानुबन्ध रौद्रध्यान. ३८ किसीके मकान, बगीचा, धर्मशाला, वस्त्र, भू षण, बरतन, भोजन, पाणी, अन्न, फल पुष्पादी, त्रण कंकर जैसा निर्माल्य पदार्थ भी उसके मालककी आज्ञा विन, देखके, स्पर्शके, या भोगवके, आनंद माने सोभी चौर्यानुबन्ध रौद्रध्यान.: जो जो अन्य पदार्थ सुणने में, देखनेमें, व जानें में आवे, उनको ग्रहण करनेंकी, अपनें ताबें करनें 1 : • तव तेणे वय तेणे, रुवे तेणेय जे नरा; आयार भाव तेणेय, कुत्र देवेइ किंविसा १ अर्थ आचारका, वृतका, रूपका, तपका, भाव का चीर, मरके, किलविषी (देवमें चंडाल जैसे) देव होतें है.
SR No.006299
Book TitleDhyan Kalptaru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherKundanmal Ghummarmal Seth
Publication Year
Total Pages388
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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