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२६४ ध्यानकल्पतरू. टने का उपाय कर. अनंत अक्षय अव्यबाध मोक्ष सुखं को प्राप्त कर.
यह धर्म ध्यान ध्याता की चार अनुप्रेक्षा (विचारना) का स्वरूप कहा. इस में रमण करने से धर्म ध्यान में एकाग्रता प्राप्त होती हैं.
धर्म ध्यानस्य-पुष्यफलम्.
इस धर्म ध्यान में एकांतता न होने से. अर्थात् पुद्गल प्रणती की मिश्रता युक्त विचार और प्रवृती होने से. संपूर्ण कर्म की निर्जरा न होते. पुन्यकी अधिकता होती हैं. उस पुन्य फल कों भोगवने के लिये ज्यों ज्यों ध्यान की अधिकता होय त्यों त्यों उच्च स्वर्ग में निवास मिलता हैं.
__ स्वर्ग (देव) लोक में उत्पन्न होने की सेज्या (पलंग) है उसपे एक देवदुष्य नामे वस्त्र ढका हुवा होता है, यांसे सरीर छोड पीछे धर्म ध्यानी का जीव उस सेज्या में जाके उत्पन्न होता हैं. और एक मु. हुर्त पीछे पूरी प्रजा बांधके उसवस्त्रकों ओढ (सरीरकों ढक) के बहेठा होजाते हैं; उसी वक्त उनके अज्ञाकित