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________________ उपशाखा-शुद्धध्यान. ३१५ प्रवेशही नहीं करनेदे, जिधर द्रष्ट करे, उधर वोही वो द्रष्ठ गत होए. ऐसा लव लीन हुवा जीव द्रढाभ्यास से, उसही स्वरूप को, ज्ञान द्रष्ठी कर देखने लगे, तब सिद्ध स्वरूपकी और अपने श्वरूप की तुल्यता करे, की इनमे और मेरेमें क्याफरक हैं. कुछ नहीं, जो रू. प यह है वोही यह है. मेरा निजश्वरूप ही परमात्मा जैसा है. सर्वज्ञ सर्व शक्ती वान निष्कलङ्क, निराबाध चैतन्य मात्र सिद्ध बुद्ध प्रमात्मा में ही हूं. ऐसे भेद रहित बुद्वि की निश्चलता स्थिरता होय, अपको आप सरीर रहित या कर्म कलंक रहित शुद्ध चित्त, अनन्द मय जानने लगे. ऐकांतताको प्राप्त होबे फिर द्वितिय पन बिलकुल रहे नहीं. उस समय ध्याता और ध्येय. का एकही रूप बन जाता है. __ ऐसे जिनके सर्व विकल्प दूर हो गये हैं. रागा दी दोषोंका क्षय हो गया है, जानने योग्य सर्व पदा. र्थको यथा तथ्य जानने लगे. सर्व प्रपंचोसे विमुक्त हो गये. मोक्ष स्वरूप होगये. सर्व लोकका नाथपणा जिनकी आत्मामें भाष होने लगा, ऐसे परम पुरुषको रुपातीत ध्यानके ध्याता कहीए. . . इस ध्यानके प्रभावसे, अनादी जकड बन्ध जो कर्म का बन्ध है, उसे क्षिण मात्रमे छेद, भेद, तरिक्ष
SR No.006299
Book TitleDhyan Kalptaru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherKundanmal Ghummarmal Seth
Publication Year
Total Pages388
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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