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और रोगी पिता को देख वैरागी बने. और तुर्त फा ल्गुन वद्य २को दिक्षा धारन कर पिताके साथ हुये, पुज्य श्री खुब ऋषिजी महाराजके पास लाये. तपस्वीजी श्री केवल ऋषिजीने संसार सम्बन्धके कारणसे श्री अमोल ख ऋषिजीको अपने शिष्य बनानेकी नाखुशी दरशाइ,त वपुज्य श्रीके जेष्ट शिष्य आर्यमुनी श्री चेनाऋषिजीमहा राजके शिष्य अमोलख ऋषिको बनाये, थोडेहीकाल पा दश्री चेना ऋषिजी और पुज्य श्री खुबाऋषिजी का स्वर्ग वास हुवा और फिर थोडे ही काल बाद तपस्वी जीश्री केवल ऋषिजी एकले विहारी हुवे. तब नजीकमें वि चरते श्री भेरूऋषी जी के साथ श्री अमोलखऋषिविचरे, उसवक्त (१९४८ फालगुनमें) औस बाल ज्ञाती के एक पन्नालालजी ग्रस्थने १८ वर्ष की वयमे दिक्षा धारन करश्रीअमोलख ऋषिजीके शिष्य बनेथे. उनकोसाथ ले जावरे आये, वहां श्री- कृपा रामजी महारा ज के शिष्य श्री रूपचंदजी महाराज गुरू वियोग सेदुःखी हो रहेथे उनको संतोष ने श्री अमोलख ऋषि जी ने अपने शिष्य पन्ना ऋषिजी को समरपण किये देखीये एक येह भी उदारता ? फिर दो बर्ष बाद दि क्षा दाता श्री रत्न ऋषिजी महाराज का मुकाबला होते श्री अमोलख ऋषिजी उनके साथ विचरने लगे