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________________ ५० ध्यानकल्पतरू. विचारही मनमें रमण करता हैं, जिससे बज्र कर्मोंका बंध सदा होताही रहता हैं. इसकी आतमासें धर्म कर्म बिलकुल नहीं बनता है. जो देखा देख किया भी तो, कर प्रकृतीके सबबसे उसका अच्छा फल नष्ट होजाता हैं. हाथमें कुछ नहीं आता हैं, अर्थात् डसके विचारसे कुछ होता नहीं हैं. होण हार होतब तो हुबाही रहता है. परंतु उसके मलीन प्रणामसे उसके कर्मों का बन्ध अवस्य पडता है. और उन कनिष्ट कर्मोंका बदला देने, रौद्रध्यानीकी नर्क गती होती हैं. वहां यहां के किये हुये कर्मोंके फल भुक्तता हैं ! परमाधामी (यम) देव, हिंशा करनेवालेकों, जैसी तरह उसने हिंशा करी होय, वैसेही वो मारते हैं. अर्थात् काटनेवाले को काटते हैं. छेदनेवालेका छेदन भेदन करते हैं. सी कारीका तीरोसे सरीर भेदते हैं. सिंह सर्पा, बिच्छू, कीड़े, मच्छर मच्छर वगैर जीवोंके घातकका, क्षूद्र जी. वोंके जैसा रूप धारण कर, उसे चीर फाड खाते हैं. मांस भक्षीको उसका मांस तोडके खिलाते हैं. मंदिरा पानीको, उकलता २ सीसा, तरूवा, तांबा पिलाते हैं. विषय लुब्धीको, अन मय लोह पुतलीके साथ संभोग कराते हैं. रागीणीयोंके रसयिके कान, रुप लुब्धकी आंख गंध निकासीका का जिया कोळपी की जीभ्याका क्षूद्र
SR No.006299
Book TitleDhyan Kalptaru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherKundanmal Ghummarmal Seth
Publication Year
Total Pages388
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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