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द्वितीयशाखा-रौद्रध्यान ५१ छेदन भेदन करते हैं. ताते खारे पाणीसें भरी हुइ बेतरणी' नदीमे न्हलाते हैं. तरवारकी धारसेभी अती तिक्षण पत्र बाले सामली वृक्ष, तले बेठाके हवा चलाते हैं. कुंभी पाकमें पचाते हैं. कसाइयोंकी तरह सरीरके तिल २ जिले टूकडे करते हैं. इत्यादि कर्म उदय आते है. तब सागरो बंध तक रो २ के दुःख भोगवते है. छूटने मुशकल होजाते है. ऐसा ये रोद्रध्यान दोनो भवमें रौद्र (भयंकर) दुःख दाता जाणना.
रौद्रध्यनीके बऊदा कृष्ण लेस्या मय प्रणाम रहते है. ये हिंशा, झूट, चोरी; मैथुन, परिग्रह ये पंच आश्रव. तथा मिथ्यात्व, अवृत, प्रमाद, कषाय, असुभ जोग ये पंच अश्रव, का सेवने वाला, ज्यूंने कर्मके फल भोगवता अशुद्ध प्रणामके योग्य से पीछा वैसेही कर्मोका बंध करता है. यों भवांतरकी श्रेणी में परिभ्रमण कि. याही करता है. रौद्रध्यानीका संसारसे छुटका होना बहुतही मुशकिल है. अनंत संसार रुलता है. इस लिये ये रौद्रध्यान 'हेय' त्यागने योग्य हैं.
* चार कोशका उंडा और चौरस कुबमै, देव कुरुक्षेत्रके जु. गलीयोंके बाल अंसमे डालनही खटके ऐगे, वारीक करके ठसो उस भरे और सोसो वर्षमे एक रज निकालते वो सारे
चाली होजावे, उसे वर्षका एक पल्योपम होता है. और दशकोडा कोडीकुवे खाली हावे. उवर्षका एक सणरोपम होता,