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ध्यानकल्पतरू.
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'दोनो समुचय
यह आते और रौद्रध्यान, अष्टादश पापसे भरे हुर्वे, महा मलीन, सतपुरुषोंके निंदनिय ग्रहनिय, अनाचरणिय है. यह दोनो ध्यान बिना अभ्यास पूर्व कमौदयसे स्वभाविकही उत्पन्न होते हैं; और कर्मोकी प्रबलता रहती है वहांतक, निरंत्र हृदय में रमण करते रहते हैं. उच्चस्थान प्राप्त हुये बडे २ ज्ञानी ध्यानी, तपी, संयमी, मुनीको यह प्राप्त होके, एक क्षिणमें पाताल गामी बणादेते हैं. ऐसे ये प्रबल है; मोक्षमार्ग मे आर्गल ( भागल) समान आडे आके अटकाने वाले है, सद्वर्तीका नाश करनेवाले है. कलंक जैसे काले, काम जैसे विषारी, पापवृक्षके बीज है. अन्य द्रव्यादिकका छोडना सहज है, परंतु इनसे बचना बहुनही मु शकील है. इनका प्राजय (नाश) तो एक प्रबल प्रतापी महा मुनीराज करके, अनंत अक्षय अ-याबाध मोक्षके मुख प्राप्त करते हैं.
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परम पुज्य श्री कहानजी ऋषिजी महाराजके सम्प्रदायके बाल ब्रह्मचारी मुनी श्री अमोलख ऋषिजी रचित "ध्यान कल्पतरू १. ग्रंथका द्वितीयशाखा रौद्रध्यान नामे समाप्तं.