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________________ उपशाखा-शुद्धध्यान. २७३ का सरीर; तथा अन्य अशुभ पुद्गलों (वस्तुओं) से ब. ना, नर्क निवासी जीवोंका सरीर; और शुभ पुद्गलोंसे बनाइवा, देव लोक निवासी जीवोंका सरीर, उसे वा हिर आत्माकहते हैं. अज्ञानी जीव-उसेही आत्मा मान बेठे हैं, और अपने सरीर को हाथलगा कहते हैं. मैंगोरा हूं. कालाहू, लम्बाहू, छोटा हूं, जाडाई पतलाहूं. मेरा छेदन भेदन होता है मेरे अंगोपांग दुःखते हैं, रखेमे री आत्माका विनाश होवे, और वो इन्द्रीयोंके शब्दादी विषयों के पोषण में मजा मानते हैं, में स्त्री हूं, पुरूष हं, नपुंशक हूं इत्यादी विचारसें पस्परं भोगमें आनंद मानतेहैं, हा हा करतेहैं. मतलबकीजो सरीरको आत्मा माने, सरीरके सुख दुःखसे अपना सुखदुःख मानें. सरीर की पुष्टाइसे हर्ष, और कष्टासे दुःख मानते हैं; वहीबा हिर आत्माको आत्मा मानने वाले अज्ञानी जानना शुद्ध ध्यान के ध्याता, इस अनादी भाव को मिटाने देहा ध्यास छोडने, प्रणामोकी निशुद्धी करने, विचार * श्लोक-देहात्म बुद्धिजपाप, नतदगौवध कोटीभीः आत्मा अहंबुद्धिजं, पुण्य नभूतो नभविष्यति ___अर्थ- सरीर हीको जो आत्मा मानते हैं उन्हे क्रोडो गाइयों के वध करनेवालेसेंभी अधिक पाप लगता है और मैं आत्माही हूं ऐसे विचारवालेको जित्ना पुण्य होता है वो पुण्य निकालके पुण्यसें : भी अधिकहै.
SR No.006299
Book TitleDhyan Kalptaru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherKundanmal Ghummarmal Seth
Publication Year
Total Pages388
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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