SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 167
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान १४१ जानते हो, उनकी शैन्यका प्रबल प्रताप की, तीनही लोकको ताबे कर रक्खा है. उनसे आपकी जीत होनी मुशकिल हैं; वक्त ऐसा न हो की, आपकी शैन्य उन में मिल जाने से आपका अपमान होय, और राज भी जाय ! इस लिये आप सन्मुख जाके सज्य कर लीजीये. वृधो की सेवा अपमान न समजीये. यह सुण चैतन्य हँस के बोले मै सब समजता जहां लग सिंह गुफा में निद्रिस्थ रहता है वहां तक ही वनचरो को उन्माद करनेका अवकाश मिलता है. समजे ! बहुत कालके उडते धूलेकों, क्षिणिमें मेघ दवा देता है ! मेरे विन उस मोहको पहचानने वाला दूसरा: हे ही कोन ? इत्ने दिन गम्म खाई, यह मेरी भूल हुइ अन्यायीकी पयमाली करनाही हमारा कर्तव्य हैं !! क्या तुम नहीं जानते हो, मै मोहके ताबेमे था, जब मेरी कैसी फजीती करी हैं. उसका क्षिण २ मुजे स्मरण होता है, अब मैं मूर्ख न रहा की, पीछा उसकें, तावेमें हो, फजीती करावं ! इले दिन मेरे परिवारकी मुजे पहचान नहीं थी. पर विवेक मंत्रीश्वरका भला हो ? इस दुःखसे छोडने, उनोने सुजे युक्ती और सामुग्री व ताइ. मैं मोहके सन्मुख हो, नष्ट करने तैयार था. अ च्छा हुवा की वो सामे आगया. जरा तुम खडे रहो 2
SR No.006299
Book TitleDhyan Kalptaru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherKundanmal Ghummarmal Seth
Publication Year
Total Pages388
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy