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________________ तृतीयशाखा - धर्मध्यान. ९३ पंचमहा-वृत, ध्यानी जन बहुत करके महावृती होतें हैं. इस लिये उन्हे अपने वृतोंपें ध्यान देनेकी बहुतही जरूर है. १ " सव्वं पाणाइ वायाउं वेरमणं" = अर्थात त्रस, स्थावर, सुक्षम, बादर, सर्व जीवोंकी हिंशा त्रिविध २* सर्वथा निवृते. ( सर्वथा हिंशा त्यागे). २ " सव्वं मुसं बायार्ड वेरमणं" = अर्थात्-क्रोधसे, लोभसे, हंसिसे, और भयसे, सर्वथा त्रिविधे २ मृषा (झूट ) बोलने से निवृते. ३ " सव्वं अदिनं दाणाउं वेरमण" -अर्थात थो डी, बहुत, हलकी, भारी, सचित (सजीव) और अचित (निर्जीव) इनकी सर्वथा प्रकारे त्रिविध २ चोरीसे निवृते. ४ " सव्यं मेहूणा वेरमणं" - अर्थात देवांगना की मनुष्याणी. और तिर्यंचणी, इत्यादी मैथुन सेवनेसे सर्वथा प्रकारे त्रिविधे २ निवृते. ५ " सव्वं परिगाहाउ वेरमणं” थोडा, बहुत, ह लका, भारी. सचित, और अचित, इत्यादि परिग्रह सें सर्वथा प्रकारे त्रिविध २ निवृते. * . करे नहीं मनसे बचनसे कायासे करावे नहीं मनसे बचन से कायासे, अच्छा जाने नहीं मनसे, वचनसे, कायासे ये ९ कोटी 1
SR No.006299
Book TitleDhyan Kalptaru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherKundanmal Ghummarmal Seth
Publication Year
Total Pages388
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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