SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 331
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपशाखा-शुद्धध्यान. की प्रषदा से प्रवरे, दिव्य ध्वनी प्रकाश करते हैं, जिसका अवाज, भाद्रव के मेघ गर्जारवकी तरह, चार २ कोश में, चारही तर्फ पसरता है, जिसे श्रवण कर, अचूतेंद्र, सकेंद्र, धरणेंद्र, नरेंद्र, (चक्रवर्ती) और वृश्प ति जैसे विद्यामें प्रचूर, षड शास्त्र के परगामी, महा तेजस्वी, वकृत्वकला के धारक, महा प्रवीण प्रभूकी दि व्य ध्वनी श्रवण कर, चमत्कार पाते हैं. की हा हा ! क्या अतुल्य शक्ती ? क्या विद्या सागर, एकेक वाक्य की क्याशुद्धता मधुरता सरलता इत्यादी गुणानुराग में अनुरक्तहो, हा हा कर अत्यन्त आनन्द को प्राप्त होते हैं। जैसे क्षुद्यातुर मिष्टान भोजनकों और त्रषातुर सितो दक को ग्रहण करता हैं. तैसे ही श्रोतगण जिनेश्वर के एकेक शब्द को अत्यंत प्रेमातुरता से ग्रहण कर, हृदय को शांत करते है;परम वैराग्य को प्राप्त होते हैं, वाणी श्रवण करते सर्व काम को भुल एकाग्रता लगाते हैं. और भी भगवंत की सूर्त, मनहर ,शांत, गंभीर, महा तेजस्वी एक हजार आठ उत्तमोत्तम लक्ष णों से विभुक्षित. देदिप्य - झलझाट करती, सर्वोत्तम अत्यंत प्यारी मुद्रा के दर्शनमें लुब्ध होतेहैं. और हृदयमें कहतेहैं की, हा हा, क्या यह स्वरुप संपदा,
SR No.006299
Book TitleDhyan Kalptaru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherKundanmal Ghummarmal Seth
Publication Year
Total Pages388
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy