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________________ तृतीयशाखा-धर्मध्यान. १७३ उ-तप संयम पाला हो ज्ञानीयोंकी ववावञ्च करी हो, ज्ञान की महिमा, बहुमान किया हो उन्हे जाति स्म रण, अवधीज्ञान, उपजे. ९३ प्र-वृत-पञ्चखाण क्यों नहीं कर सके? उ-अन्यके वृत भंग कराय. शुद्धवृत्तीके दोष लगाया, अन्यके वृत भंगा देख खुशी हो. पोते वृत ले प्रणामोंमें सक ल्प विकल्प करे, वार २ वृत भांगे, उससे वृत पञ्चखा ण न हो. .९४ प्र-कसाइयों के हाथसे कटे सो कोनसा पाप? उ-कषाइयों से वैपार करे. कषाइयों को जानवर दिया. कषाइके कृत्य करें, दगासें घात करे, बनचरों. की सिकार करें, मांस खाय, सो पशु हो गयाइयों के हाथसे कटे. ९५ प्र--पाप कर धर्म माननेका क्या सबब? उभ्रष्टाचारीकी संगत करे. पाप कार्यमे धर्म कहे, सत्य देव, गुरू, धर्मकी निंदा करे, वो पापमेंही धर्म मानने. ९६ प्र-बिभ चारी क्यों होवे ? उ-वैश्या के कीशव कमाय. या वैश्या का संग करे. कुसीलीये की परसंस्था करें तिर्यंच तिर्यंचणी का संयोग मिलावें, संयोग देख हर्षाय सो बिभचारी होवें. ९७ प्र-सीलवंत काय से होवें ? उ--शीलपाले.
SR No.006299
Book TitleDhyan Kalptaru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherKundanmal Ghummarmal Seth
Publication Year
Total Pages388
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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