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________________ ६४ ध्यानकल्पतरू. वसे निर्वारी, अहिंशादी पंचमहावृत स्विकार किये, तथा अनादी प्रणति रूप संसर्ग कर, जो अंतःकरणकी वृतीकों विकार मार्गमें प्रावृती कराती हैं, उन वृतीयोंको अंतरिक ज्ञान, आत्माकी प्रबल प्रेरणा कर निबंताइ, खान पानकी लोलुपता त्यागी, वोही ध्यान सिद्धी कर सकेंगे. ८ धीर होय-अर्थात् ध्यानस्त हुये फिर, कैसाभी कठिण परिसह उपसर्ग आनेसे, विलकुल प्रणामोंको चल विचल नहीं करे. क्यों की ध्यानमें परवेश करते पहले "अप्पाणं बोसी रानी” अर्थात में इस सरीरकों वोसीराता हूं. इसकी ममत्व छोडता हूं. यह सरीर मेरा नहीं, में इसका नहीं, ऐसा कहके बेठते हैं; तो जब यह सरीर अपनाही नहीं, तो फिर इसका भक्षण करो, दहन करो, या छेदन भेदन करो, कुछभी करो, अपनको क्या फिकर. ऐसा निश्चय होय, तबही ध्यानकी सिद्धीको प्राप्त हो सकता * एकदम लुलुप्त घटनी मुशकिल है, इस लिये योडी लुलुप्ता घटानेका सदा अभ्यास रखना चाहीये, जैमे यह वस्तु नहीं खाइतो क्या वह वस्त्र नही पहरा तो क्या यह काम अबल तो भुशकिल लगेगा परंतु फिर से हज होजायगा यो सर्व वस्तु उपर से लुलुप्ता घटानेकी यह बहुत सहजकी रीती हैं. यों करनेसे कोइ वक्त निर्ममत्वताको प्राप्त होशक्तें है
SR No.006299
Book TitleDhyan Kalptaru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherKundanmal Ghummarmal Seth
Publication Year
Total Pages388
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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