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१०८ ध्यानकल्पतरू. देव दंडेसे, हड्डीसे, मुष्टीसे, पत्थरसे, कंकरसे, मुजे मारते. तर्जना,-ताडना करते, परिताप उपजाते, दुःख देदेते, उद्वेग उपजाते, या जीव काया रहित करते, जाव त् सरीरपेका रोम (बाल) मात्रभी उखाडते. इन हिं. शाके कारणोंसे जैसा दुःख और डर मेरेको होता है, ऐसाही जाणो-सब जीव (पचेंद्रीयों) को, सर्व भूत (वि नास्पति) को, सर्व प्राणी (बेंन्द्री तेन्द्री चौरिन्द्री) को
और सर्व सत्व(पृथवी,पाणी, अग्नी, वायु)कों दंडेसे मारतें जावत् कंकरसे मारते, अक्रोश, ताडन, तर्जन करते. परिताप उपजाते, किलामणा (दुःख) देतें- उद्वेग उपजाते. जावत् जीवकाया रहित करते रोम मात्र उखेडतेभी, इन हिंशाके कारणोंसे वो जीव दुःख और डर मेरे जैसाही मानते है-अनुभवते हैं.” ऐसा जाणके सब प्राण, भूत, जीव, सत्वको मारना नहीं, दंडसे ताडना नहीं, बलत्कार जब्बर दस्तीकर पकडना नहीं. या किसी काममें लगाना नहीं. सरीरी, मानसीक दुःख उपजाके परिताप देना नहीं. किंचितही उपद्रब करना नहीं; और जीव काया रहितभी करना नहीं. ऐसा उपदेश गयेकालमें जो अनंत तिर्थकर हये वृतमानमात्र जो विटामान है और वे काळों अ..