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तृतीयशाखा-धर्मध्यान १०९ नंत तिथंकर होयंगे उन सबहीनें ऐसाही फरमाया है, संदेह रहि कहाहै ऐसा परुपा है, ऐसा उपदेश दिया है, की-“सर्व प्राण भूत जीव सत्तवको, मारन ताडन, तरजन परिताप, करना नहीं, बंधनमें डलना नहीं, स रीरी मानसी दुःख उपजाना नहीं, जावत् जीव काया रहित करना नहीं, येही धर्म दया मय निश्चल है. नि त्य है. शाश्वता (सनातन) हैं. इन बचनको विचारनाकी सब जीव बेचारे कर्मोंके वशमें हो दुःख सागरमें पडे है, उनके दुःखको जाणनेवाले खेदज्ञ. ऐसे श्री तिर्थंकर भगवानने फरमाया हैं. की सवकी दया पालो! रक्षा करो!! गाथा कल्लाण कोडिअणणी, दुरंत दुरियाखिग्गठवणी.
संसार भवजलतारणी, एगंत होइमिरिजीवदया___ अर्थ-क्रोडो कल्याणको जन्म देने वाली. दुरदंत दुरित (पाप) के नाशकी करनेवाली, संत पुरुषोंके स्थान रूप. संसार महा सागर को तारने नाब स
ॐ दीर्घद्रष्टीसे महा दयाल श्री तिर्थंकर भगवानके वचनोंकेतर्फ लक्ष दीजीये! खुद भगवानही फ़रमाते हैकी, छ कायको हिंशा करनेसे उन्हे मेरेही जैसा दुःख होताहै! ऐसे दयाल प्रभूको छही काया की हिंशा कर खुशी करना चहातें है. यह कित्नी जबर माहे दिशा !!
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