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________________ उपशाखा-शुद्धध्यान. . ३१९ हो जाय, परंतु सरीरसे सुगन्ध आवे. कान्ती बडे. ३ 'तत्ततवे' ज्यों तपे लोहेपे पडा हुवा पाणी सुख जाय तैसे तिव्रशूद्या लगने से थोडा अहार करे जिससे लघु नीत बडीनीत की बाधा न होवे, और देवतासे भी ज्यादा सरीरमें बल आवे. तथा अनेक लब्धीओं प्राप्त होवे. ४ 'महातप' मास क्षमण जावत् छमासी तप करे, क्षिणंतर रहित श्रुतज्ञान में तल्लीन बने रहे, जिससे परम श्रुत, अवधी, मन पर्यव ज्ञानकी प्राप्ती होवे, ५ 'घोरतप' महा वेदना उत्पन्न हुये भी किंचित ही कायरता न करे, औषध न लेवे, ग्रहण किया तप न छोडे, उग्रह (बीकट) अभिग्रह धारण करे, सरीरकी संभाल न करे, ममत्व रहित विचरे, ६ घोर पराक्रम' स्वशक्ती तप संयमके अतीशयसे जगत् त्रयको भयभ्रं त कर सके, समुद्र शोक शके और पृथवी उलटी कर शर्के इत्यादी महाशक्तीवंत होवे. ७ 'घोरगुण ब्रम्हचारी' नवबाड विशुद्ध नव कोटी युक्त शुद्ध शील वृतादीके प्रसाद से त्रण जगतके महारोगको उपशमा के शांती वरता सके, सर्व भये निवार सके, व्यंतरभय, जंगम, स्थावर विष, वगैरे उपसर्ग उनपे किंचितही असर पराभव न कर सके, यह रहे वहां मार मारी दुर्भिक्षा दी उपद्रव न होवे. इत्यादी महा प्रभाव वंत होके.
SR No.006299
Book TitleDhyan Kalptaru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherKundanmal Ghummarmal Seth
Publication Year
Total Pages388
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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