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________________ ३१८ ध्यानकल्पतरू. नेक योजन चले जाय. ___३ 'वेक्रय ऋद्धिके' ११ भेद-१ अणिमा-सुक्ष मसरीर बनावे. २ महिमा-चक्रवृतीकी ऋद्धि बनावे. ३ लघिमा-हवा के जैसा हलका सरीर करे, ४ गरिमा“बन जैसा भारी सरीर करे, ५प्राप्ती--पृथवीपे रहे मेरुचूल काका स्पश्यं करले. ६ प्राकाम्य:-पाणीपे पृथवीकी तरह -चले, और पाणी में डूबे. जैसे पृथवीमें डूबे, ७ ईशत्व तीर्थकरकी तरह समवसरणादी ऋद्धि बनावे, ८ वश स्व-सबको प्यारा लगे, ९ अप्रतिघात-पर्वतके अन्दर से भेदके निकल जाय. १० अन्तर्धान=अद्रश (गुप्त) हो जाय, और ११ कामरूप-इच्छित रूप बनावे. ४ तप ऋद्धि के ७ भेद-१ उग्रतप-एक उपवा स का पारणा कर दो उपवास करे दो के पारणे तीन उपवास यों जावजीव लग चडाता जया सो उ. ग्रतप, और जीवतव्यकीआशा छोड तपकरे सो उग्रोग्र तप, तथा एकांत्र उपवास करे उसमे अंतराय आ जाय तो बेले २ पारणा करे, यों चडाते जाय सो 'अ वस्थितोग्रतप' २ 'दीत्ततवे' तप करके सरीर तो दुर्बल * पारणाका जोग नहीं बने तथा अन्य कारणसे उपवासमें अंतराय भाजाय तोफिर बेले २ पारणा करे, फ़िर अंतराय आवेतो तेले २ करे यो जाबजीव चडात जाय, राय भाजाय तोकि
SR No.006299
Book TitleDhyan Kalptaru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherKundanmal Ghummarmal Seth
Publication Year
Total Pages388
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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